मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने SIR की आवश्यकता और औचित्य पर उठाए जा रहे सभी सवालों को खारिज कर दिया। पीठ ने बताया कि बिहार में यह कवायद (एक्सरसाइज) पूरी होने के बाद जमीन पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं दिखा।
सिब्बल का तर्क: पुनरीक्षण ‘बहिष्कार का औजार’
आरजेडी के सांसद मनोज झा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता (सीनियर एडवोकेट) कपिल सिब्बल ने SIR की संवैधानिक वैधता को चुनौती (चैलेंज) दी। उन्होंने कहा कि देश में करोड़ों निरक्षर (अनपढ़) लोग हैं जो मतदाता पंजीकरण के लिए आवश्यक प्रपत्र (फॉर्म) नहीं भर पाते हैं, जिससे यह प्रक्रिया उन्हें वोटर लिस्ट से बाहर करने का एक उपकरण (टूल) बन रही है।
सिब्बल ने प्रश्न किया: “आखिर एक मतदाता से यह प्रपत्र भरवाने की आवश्यकता ही क्यों है? निर्वाचन आयोग कौन होता है यह तय करने वाला कि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है या नहीं?” उन्होंने सुझाव दिया कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति को केवल स्व-घोषणा (सेल्फ-डिक्लेरेशन) के आधार पर मतदाता सूची में शामिल किया जाना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी: ग्रामीण क्षेत्रों में चुनाव ‘उत्सव’
सिब्बल के तर्कों का जवाब देते हुए मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने कहा, “सिब्बल साहब, आपने दिल्ली जैसे शहरों में चुनाव लड़े हैं, जहां कई लोग मतदान नहीं करते। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में चुनाव उत्सव (फेस्टिवल) की तरह होते हैं। वहां हर व्यक्ति अपने मत (वोट) के प्रति चिंतित रहता है और सभी एक-दूसरे की पहचान जानते हैं।”
सिब्बल ने जवाब में कहा कि आजादी के बाद देश में इतने बड़े पैमाने पर मतदाता सूची में संशोधन कभी नहीं किया गया, क्योंकि ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा समावेशी (इन्क्लूसिव) था, न कि बहिष्कारी।
न्यायमूर्ति बागची का जोर: मतदाता सूची की शुद्धता अनिवार्य
न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची ने मतदाता सूची की शुद्धता पर जोर देते हुए कहा कि 2012 और 2014 में कई राज्यों में मतदाताओं की संख्या वयस्क आबादी से भी अधिक पाई गई थी। उन्होंने पूछा कि अगर निर्वाचन आयोग को किसी की नागरिकता पर संदेह हो, तो क्या उसे जांच (वेरिफिकेशन) का अधिकार नहीं होना चाहिए?
मुख्य न्यायाधीश ने बिहार का उदाहरण देते हुए कहा कि शुरुआत में लाखों नाम काटे जाने की बात कही गई थी, लेकिन अंत में पता चला कि हटाए गए नाम मृत लोगों या पलायन (माइग्रेट) कर चुके लोगों के थे, जिस पर किसी ने आपत्ति नहीं की।
नागरिकता सिद्ध करने का ‘भार’ मतदाता पर क्यों?
कपिल सिब्बल ने अपने तर्कों के अंत में कहा कि नागरिकता साबित करने का भार (बर्डन) मतदाता पर नहीं डाला जा सकता। उन्होंने कहा कि यदि किसी मतदाता पर संदेह है, तो उसका मामला सक्षम प्राधिकारी (कम्पीटेंट अथॉरिटी) को भेजा जाना चाहिए, क्योंकि बूथ स्तर अधिकारी (BLO) को किसी की नागरिकता जांचने का अधिकार नहीं है।
पीठ ने सभी पक्षों को सुना और कहा कि वह प्रक्रिया नहीं रोकेगी, लेकिन कोई भी वास्तविक शिकायत (कम्प्लेंट) आने पर तुरंत हस्तक्षेप किया जाएगा।
न्यायालय ने इस दलील को भी खारिज कर दिया कि SIR की कवायद पहले कभी नहीं हुई, इसलिए इसे चुनौती दी जाए। पीठ ने कहा कि निर्वाचन आयोग के पास प्रपत्र (फॉर्म) 6 में दर्ज जानकारी की सत्यता निर्धारित करने की अंतर्निहित शक्ति (इन्हेरेंट पॉवर) हमेशा रहेगी।
न्यायालय ने यह भी दोहराया कि आधार कार्ड नागरिकता का पूर्ण प्रमाण नहीं देता है, बल्कि यह केवल दस्तावेजों की सूची में से एक प्रमाणपत्र होगा।
आगे की सुनवाई के लिए तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में SIR को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर निर्वाचन आयोग को जवाब दाखिल करने की समय-सीमा तय कर दी गई है।
