जनजातीय परंपराओं को मिली संवैधानिक मान्यता
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) लागू नहीं होगा। अदालत ने कहा कि जनजातीय समुदायों की अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है, इसलिए उन पर हिंदू कानून थोपना न्यायसंगत नहीं होगा। इस फैसले के साथ शीर्ष अदालत ने हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें जनजातीय क्षेत्रों की बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार देने की बात कही गई थी।
यह मामला ‘तीरथ कुमार बनाम दादूराम’ (Tirith Kumar vs Daduram, 2024 SCC OnLine SC 3810) से जुड़ा था। यह विवाद हिमाचल प्रदेश की सवाड़ा जनजाति के एक परिवार में उत्पन्न हुआ था, जिसमें सवाल उठा कि क्या बेटियों को संपत्ति में वही अधिकार मिलेंगे जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिंदू बेटियों को मिलते हैं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के तहत जनजातीय बेटियों को भी संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण को संविधान और कानून की सीमाओं से परे बताया। अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजातियों की सूची में किसी भी तरह का बदलाव या संशोधन सिर्फ राष्ट्रपति की अधिसूचना से ही संभव है। न तो कोई अदालत और न ही कोई राज्य सरकार इस सूची में बदलाव कर सकती है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि सवाड़ा जनजाति आज भी अधिसूचित जनजाति की सूची में शामिल है और इसे “डीनोटिफाई” करने का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया है।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) का उल्लेख करते हुए कहा कि यह कानून अनुसूचित जनजातियों पर तब तक लागू नहीं हो सकता, जब तक कि केंद्र सरकार इसके लिए कोई विशेष अधिसूचना जारी न करे। अदालत ने कहा कि जनजातीय समुदायों की अपनी परंपरागत संपत्ति व्यवस्था, उत्तराधिकार के नियम और सामाजिक ढांचे हैं, जिन्हें भारतीय कानून और संविधान दोनों मान्यता देते हैं।
न्यायमूर्ति की पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि अनुसूचित जनजातियों की विशिष्ट संस्कृति और परंपरा को “मुख्यधारा के कानून” के तहत दबाना संविधान की भावना के विपरीत होगा। अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में स्पष्ट रूप से यह व्यवस्था है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सूची में बदलाव करने का अधिकार केवल राष्ट्रपति को है, इसलिए किसी न्यायिक आदेश से इसे बदला नहीं जा सकता। फैसले में कहा गया, “हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता। यह स्थिति कानून में पहले से ही स्पष्ट और स्थापित है।” अदालत ने आगे जोड़ा कि भारत का संविधान जनजातीय समाजों को उनके पारंपरिक अधिकारों, संस्कृति और स्वायत्तता के साथ आगे बढ़ने की स्वतंत्रता देता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का असर न केवल हिमाचल प्रदेश, बल्कि देशभर की उन जनजातीय आबादियों पर पड़ेगा जहां परंपरागत रूप से संपत्ति और उत्तराधिकार के अपने नियम लागू होते हैं। यह फैसला संविधान में निहित जनजातीय संरक्षण के सिद्धांतों को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर किसी भी समुदाय की पारंपरिक पहचान और अधिकारों को खत्म न किया जाए। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका द्वारा संविधान की आत्मा विविधता में एकता की रक्षा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह फैसला न केवल कानून की व्याख्या को स्पष्ट करता है बल्कि यह भी संदेश देता है कि समानता का अर्थ समान कानून थोपना नहीं, बल्कि प्रत्येक समुदाय की विशेषता और परंपरा का सम्मान करना है।
